स्मृतियों का आकर्षण कहानी
क्या आप जानते है स्मृतियों का आकर्षण किस तरह से होता है, स्मृतियों का आकर्षण एक बारे में जानिए.
स्मृतियों का आकर्षण एक तरह से बचपन की स्मृतियों में एक विचित्र सा आकर्षण होता है. कभी कभी लगता है. जैसे सपने में सब देखा होगा. परिस्थितिया बहुत बदल जाती है. अपने परिवार में मैं कई पीढियों के बाद उत्पन्न हुई. मेरे परिवार में प्राय: २०० वर्ष तक कोई लड़की थी ही नहीं. फिर मेरे बाबा ने बहुत दुर्गा पूजा की. हमारी कुल देवी दुर्गा थी. मैं उत्पन्न हुई तो मेरी बड़ी खातिर हुई. परिवार में बाबा फ़ारसी और उर्दू जानते थे. पिता ने अंग्रेजी पढ़ी थी. हिंदी का कोई वातावरण नहीं था. मेरी माता जबलपुर से आई तब वे अपने साथ हिंदी लाई. वे पूजा पाठ भी बहुत करती थी. पहले पहले उन्होंने मुझको पंचतन्त्र पढना सिखाया.
स्मृतियों का आकर्षण सभी के लिए एक जैसा होता है, इसी को देखते हुए बाबा कहते थे, इसको हम विदुषी बनायेंगे. मेरे संबंध में उनका विचार बहुत ऊँचा रहा. इसलिए पंचतन्त्र भी पढ़ा मैंने, संस्कृत भी पढ़ी ये अवश्य चाहते थे कि मैं उर्दू फ़ारसी सिख लू. लेकिन वह मेरे वश की नही थी. मैंने जब एक दिन मौलवी साहब को देखा तो बस, दूसरे दिन मैं चारपाई के नीचे जा छिपी. तब पंडित जी आये संस्कृत पढ़ाने. माँ थोड़ी संस्कृत जानती थी गीत में उन्हें विशेष रूचि थी. पूजा पाठ के समय मैं भी बैठ जाती थी और संस्कृत सुनती थी. उसके उपरान्त उन्होंने मिशन स्कूल में रख दिया मुझको. मिशन स्कूल में वातावरण दूसरा था. प्रार्थना दूसरी थी. मेरा मन नहीं लगा. वहाँ जाना बंद कर दिया. जाने में रोने धोने लगी. तब उन्होंने मुझको क्रास्थ्वेस्ट गल्स कालेज में भेजा, जहाँ मैं पांचवे दर्जे में भर्ती हुई, जहाँ का वातावरण बहुत अच्छा था उस समय. हिन्दू लडकियाँ भी थी. ईसाई लडकियाँ भी थी. हम लोगो का एक ही मेस था. उस मेस में प्याज तक नहीं बनता था.
वहां छात्रावास के हर एक कमरे में हम चार छात्राए रहती थी. उनमे पहले ही साथिन सुभद्रा कुमारी मिली. सातवे दर्जे में वे मुझसे २ साल सीनियर थी. वे कविता लिखती थी और मैं भी बचपन से तुक मिलाती आई थी. बचपन में माँ लिखती भी थी. और गाती भी थी. मीरा के पद विशेष रूप से गाती थी सवेरे जानिये कृपानिधान पंछी बन बोले. यही सुना जाता था प्रभाती गाती थी. शाम को मीरा का कोई पद गाती थी. सुन सुनकर मैंने ब्रजभाषा में लिखना आरम्भ किया. यहाँ आकर देखा कि सुभद्रा कुमारी जी खड़ी बोली में लिखती थी. मैं एक दिन उन्होंने कहा महादेवी तुम कविता लिखती हो? तो मैंने डर के मारे कहा, नहीं अंत में उन्होंने मेरी डेस्क की किताबो की तलाशी ली और बहुत सा निकल पड़ा उसमे से. तब जैसे किसी अपराधी को पकड़ते है, ऐसे उन्होंने एक हाथ में कागज़ लिए और एक हाथ से मुझको पकड़ा और पूरे होस्टल में दिखा आई कि ये कविता लिखती है. फिर हम दोनों की मित्रता हो गई. क्रास्थवेस्ट में एक पेड की दाल नीची थी. उस डाल पर हम लोग बैठ जाते थे. जब और लडकियाँ खेलती थी तब हम लोग तुक मिलाते थे. उस समय एक पत्रिका निकलती थी. स्त्री दर्पण उसी में भेज देते थे. अपनी तुकबंदी छप भी जाती थी. फिर यहाँ आई थी. उसके उपरांत गांधी जी का सत्याग्रह आरम्भ हो गया. और आनंद भवन स्वतंत्रता के संघर्ष का केंद्र हो गया. यहाँ तहाँ हिंदी का भी प्रचार चलता था. कवी सम्मेलन होते थे तो क्रास्थवेस्ट से मैडम हमको साथ लेकर जाती थी. हम कविता सुनाते थे. हरिओध अध्यक्ष होते थे. श्रीधर पाठक होते थे, कभी रमाकर जी होते थे, कभी कोई होता था. कब हमारा नाम पुकारा जाए, बैचेनी से सुनते रहते थे. मुझको प्राय: प्रथम पुरस्कार मिलता था. सौ से कम पदक नहीं मिले होंगे उसमे. एक बार घटना की याद आती है कि एक कविता पर मुझे चांदी का एक कटोरा मिला. बड़ा नक्काशीदार दुन्दर. उस दिन सुभदा नही गई थी. सुभद्रा प्राय: नहीं जाती थी कवि सम्मेलन में मैंने उनसे आकर कहा, देखो यह मिला.
सुभद्रा ने कहा, ठीक है, अब तुम एक दिन और बनाओ और मुझको इस कटोरे में खिलाओ. उसी बीच आनंद भवन में बापू आये. हम लोग तब अपने जेब खर्च में से हमेशा एक-एक दो-दो आने देश के लिए बचाते थे और जब बापू आते थे तो वह पैसा उन्हें दे देते थे. उस दिन जब मैं बापू के पास गई तो अपना कटोरा भी लेती गई. मैंने निकालकर बापू को दिखाया. मैंने कहा. कविता सुनाने पर मुझको यह कटोरा मिला है. कहने लगे, अच्छा, दिखा तो मुझको, मैंने कटोरा उनकी और बढ़ा दिया तो उसे हाथ में लेकर बोले तू देती है इसे? अब मैं क्या कहती? मैंने दे दिया और लौट आई. दुःख यह हुआ कि कटौरा लेकर कहते, कविता क्या है? पर कविता सुनाने को उन्होंने नहीं कहा. लौटकर अब मैंने सुभद्रा जी से कहा कटोरा तो चला गया. सुभद्रा जी ने कहा. और जाओ दिखाने. फिर बोली देखो भाई खीर तो तुमको बनानी होगी. अब हम चाहे पीतल की कटोरी में खिलाओ. चाहे फूल के कटोरे में फिर भी मुझे मन ही मन प्रसन्नता हो रही थी कि पुरस्कार में मिला अपना कटोरा मैंने बापू को दे दिया.
सुभद्रा जी छात्रावास छोड़कर चली गई. तब उनकी जगह एक मराठी लड़की जेबुत्रिसा हमारे कमरे में आकर रही. वह कोल्हापुर से आई थी. जेबुन मेरा बहुत सा काम कर देती थी. वह मेरी डेस्क साफ़ कर देती थी. किताबे ठीक से रख देती थी. और इस तरह मुझे कविता के लिए कुछ और अवकाश मिल जाता था. जेबुन मराठी शब्दों में मिली जुली हिंदी बोलती थी. मैं भी उससे कुछ मराठी सीखने लगी थी. वहाँ एक उस्तानी जी थी. जीनत बेगम, जेबुन जब इकडे-तिकडे या लोकर-लोकर जैसे मराठी शब्दों को मिलाकर कुछ कहती तो उस्तानी जी से टोके बिना रहा नहीं जाता था. वाह देसी कौवा मराठी बोला. जेबुन कहती थी. नहीं उस्तानी जी, यह मराठी कौवा मराठी बोलता है. जेबुन मराठी महिलाओं की तरह किनारीदार साड़ी और वैसा ही ब्लाउज पहनती थी. कहती थी, हम मराठी है तो मराठी बोलेंगे. उस समय यह देखा मैंने कि साम्प्रदायिकता नहीं थी. जो अवध की लडकियाँ थी, वे आपस में अवधी बोलती थी. बुंदेलखंड की आती थी वे बुन्देली में बोलती थी. कोई अंतर नहीं आता था और हम पढ़ते हिंदी थे. उर्दू भी हमको पढ़ाई जाती थी. परन्तु आपस में हम अपनी भाषा में ही बोलती थी. यह बहुत बड़ी बात थी. हम एक मेस में खाते थे, एक प्रार्थना में खड़े होते थे. कोई विवाद नहीं होता था.
मैं जब विद्यापीठ आई तब तक मेरे बचपन का वही क्रम चला जो आज तक चलता आ रहा है. कभी कभी बचपन का एक और संस्कार भी था हम जहाँ रहते थे वहाँ जवारा के नावाब रहते थे. उनकी नबाबी छिन गई थी. बेगम साहिबा कहती थी. हमको ताई कहो. हम लोग उनको ताई साहिबा कहते थे. उनके बच्चे हमारी माँ को चाची जान कहते थे. हमारे जन्मदिन वहाँ मनाये जाते थे. उनके जन्मदिन हमारे यहाँ मनाये जाते थे. उनका एक लड़का था उसको राखी बाधने के लिए वे कहती थी. बहनों को राखी बांधनी चाहिए. राखी के दिन सवेरे से उसको पानी भी नहीं देती थी. राखी के दिन बहने राखी बाँध जाये तब तक भाई को निराहार रहना चाहिए. बार – बार कहलाती थी कि भाई भूखा बैठा है. राखी बंधवाने के लिए, फिर हम लोग जाते थे. हमको लहरिये या कुछ मिलते थे. इसी तरह मुहर्रम में हरे कपडें उनके बनते थे तो हमारे भी बनते थे. फिर एक हमारा छोटा भाई हुआ वहाँ तो ताई साहिबा ने पिताजी से कहा, देवर साहब से कहो, वो मेरा नेग ठीक करके रखे. मैं शाम को आऊँगी. वे कपडें – वपड़े लेकर आई. हमारी माँ को दुल्हन कहती थी. कहने लगी दुल्हन, जिनके ताई चाची नहीं होती वो अपनी माँ के कपड़े पहनते है, नहीं तो छ: महीने तक चाची ताई पहनाती है. मैं इस बच्चे के लिए कपडे लाई हूँ. यह बड़ा सुन्दर है. मैं अपनी तरह से इसका नाम मनमोहन रखती हूँ. वही प्रोफ़ेसर मनमोहन वर्मा आगे चलकर जम्मू यूनिवर्सिटी के वाइस चाल्सर रहे, गौरखपुर यूनिवर्सिटी के भी रहे. कहने का तात्पर्य यह कि मेरे छोटे भाई का नाम वही चला जो ताई साहिबा ने दिया. उनके यहाँ भी हिंदी चलाई जाती थी. उर्दू भी चलती थी. यों अपने घर में वे अवधि बोलती थी. वातावरण ऐसा था उस समय कि हम लोग बहुत निकट थे. आज की स्थिति देखकर लगता है. जैसे वह सपना ही था. आज वह सपना खो गया.
देखा आपने किस तरह से आपको स्मृतियों का आकर्षण की अनुभूति इस कहानी के माध्यम से की होगी. और ऐसा ही आकर्षण आपके अंदर के स्मृतियों का आकर्षण का होगा.
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