जय शंकर प्रसाद
आधुनिक हिंदी साहित्य के आधार स्तम्भ और छायावादी काव्य के प्रवर्तक श्री जय शंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध सुघनी साहू परिवार में ३० जनवरी सन १८८९ ई को हुआ था. अल्प आयु में पिता की मृत्यु हो जाने पर इन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. प्रसाद जी का कवि रूप अधिक प्रसिद्ध रहा है. इसके अतिरिक्त इन्होने अनेक महत्वपूर्ण नाटक, कहानी और निबंधो का सृजन किया है. प्रसादजी ने नाटको के अतिरिक्त उपन्यास और निबंध भी लिखे है. अधिकाँश रचनाओ में भारतीय संस्कृति की गौरव गाथा के दर्शन होते है. ग्रामीण परिवेश और मानवीय मूल्यों से जुडी इनकी रचनाये आदर्शों के प्रतिमान स्थापित करती है. १५ नवम्बर सन १९३७ ई को प्रसाद युग के इस प्रसिद्ध रचनाधर्मीं का निधन हो गया. प्रसाद जी की प्रमुख रचनाओ में :-
जय शंकर प्रसाद
उपन्यास में – कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण)
नाटक – चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, जनमेजय का नागयज्ञ, एक घूँट, अग्निमित्र, राज्यश्री, विशाख, ध्रुव स्वामिनी.
काव्य कृतियाँ – कामायनी (महाकाव्य) आँसू, झरना, प्रेमपथिक, कानन-कुसुम, अयोध्या का उद्धार, महाराणा का महत्व आदि.
निबंध-विवध – चित्राधार, काव्य और कला आदि और भी निबंध.
प्रसाद जी ने कुल ६६ कहानियाँ लिखी है जो छाया १९२१, प्रतिध्वनि १९२६, आंधी १९३१ में संकलित है. जयशंकर प्रसाद की भाषा शैली स्वाभाविक और यथार्थपरक है. रचनाओं में मानव मनोविज्ञान के सूक्षम विश्लेषण वाले चित्र मिलते है. रचनाओं में नए-नए प्रतीकों का प्रयोग हुआ है. भाषा अलंकारिक और संस्कृतनिष्ठ बन पड़ी है. भाषा में आवश्यकतानुसार उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी किया है. हिंदी साहित्य के छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद का प्रमुख नाम है. वे साहित्य जगत के आधार स्तम्भ है.
इनकी कहानी अभाव और आस्था के मध्य संघर्षरत पात्र की व्यथा कथा है. सामजिक विषमता के कठोर आघातों ने उसे नास्तिक बना दिया है. उसकी नास्तिकता विचार युक्त नहीं है. बल्कि अपने ही कृत्यों से प्राप्त दुखों की प्रतिक्रिया है. यदि गहराई से देखा जाए तो यह उसकी आस्तिकता का ही एक रूप है. क्योकि अपने कष्टों के लिए अंतत: ईश्वर को उत्तरदायी समझकर ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है. इसी के ऊपर नीरा की कहानी को दर्शाया गया है, इस कहानी में नीरा एक बूढ़े बाबा की बिना माँ की पुत्री है. बुढा अभावग्रस्त है पर अत्यंत जागरूक भी है. अतीत का कटु अनुभव उसे अपनी पुत्री नीरा की सुरक्षा के प्रति चिंतित बनाये हुए है. कहानी के अन्य पात्र अमरनाथ की और देवनिवास से बूढ़े बाबा की भेंट अनायास होती है. अमरनाथ को उसकी नास्तिकता से चिढ़ है पर देवनिवास को उससे और नीरा से साहनुभूति है. अमरनाथ विभिन्न तर्को से बूढ़े की नास्तिकता को धिक्कारता है पर बूढ़े के विचार नहीं बदल पाता. देवनिवास एक बार फिर बूढ़े के पास जाकर उसकी व्यथा कथा सुनता है और अचानक नीरा के साथ विवाह का प्रताव रखकर बूढ़े बाबा को चौका देता है. जो काम देवनिवास के अकाट्य तर्क नहीं कर पाते उसे देवनिवास का साधारण किन्तु सार्थक कर्म सम्भव बना देता है. देवनिवास का निस्वार्थ प्रस्ताव बूढ़े बाबा के मन में संतोष और विश्वास के साथ-साथ एक बार फिर ईश्वर के प्रति गहरी आस्था जगा देता है.
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